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“कबीरा यह घर प्रेम का , खाला का घर नाही , शीस उतारे जो धरे वो पैठे घर माहीं “, या “ढाई आखर प्रेम का ,पड़े सो पंडित होय ” जैसी रचनाएं प्राय बोलचाल में प्रचलन में है .
इस धरती पर पर महात्मा कबीर जैसे कवि -संत हुए है ,जिन्होंने मात्र स्वांतसुखाय : ही नहीं अपितु व्यक्ति और समाज उत्थान के लिए क्रांतिकारी कवि के रूप में विशेष ख्याति अर्जित की है .व्यक्ति ,समाज को शिछित करते हुए कबीर साहब ने गुरु -अध्यापक की अनूठी भूमिका का निर्वाह किया है .
उनके बारे में कहानिया है कि वे अविवाहित ब्राह्मणी कि संतान थे जिसने समाज में अपयश के चलते उसे नदी माँ बहा दिया था ..और निसन्तान नीमा-नीरू जुलाहा दम्पति परिवार में उनका पालन पोषण हुआ .उल्लेख है उनका विवाह एक वैश्या से हुआ और कमाल और कमाली उनकी सन्ताओ के रूप में जाने जाते है .
तत्कालीन देशकाल में समाज में व्याप्त धार्मिक आडम्बर -कुरीतियों पर उन्होंने अपनी रचनाओं में दुस्साहस के साथ प्रहार किये . अपने कार्य-व्यवहार और अभिव्यक्ति से उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम कट्टरपंथियों को बड़ा दुश्मन बना लिया . तत्कालीन जड़-प्रकृति विचारधारा -प्रतिमान की अंधभक्ति के समछ सत्य का उद्घाटन करते हुए खुलेआम कहना ” कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ ,जो घर फूंके आपनो वो चले हमारे साथ ” क्रांतिकारी उद्घोष है –आज भी इतना साहस करने वाले कवि -संत मुश्किल से ही मिलेंगे . मुस्लिम परिवार में पलने वाले कबीर सिर्फ हिन्दू पाखण्ड और अवैज्ञानिक कुरीतियों ,कर्मकांड पर ही नहीं बोलते ,बल्कि मुस्लिम संप्रदाय के पाखण्ड पर भी उतनी निर्ममता से प्रहार करते है —
कांकर -पांथर जोड़कर महजिद लई बनाय ,ता चढ़ मुल्ला बांग दे , क्या बहरा हुआ खुदाय
हिन्दुओं की कुरीतियों पर चोट करते हुए मूर्तिपूजा का विरोध करते है —
पाथर पूजन हरी मिलें तो में पूजूँ पहाड़ , ताके से चाकी भली पीस खाय संसार
कबीर साहब ने कहाँ शिछा प्राप्त की इसका उल्लेख नहीं मिलता . इस बारे में वे स्वयं कहते है —
मसि कागद छुओ नहीं ,कलम गहि नहीं हाथ
अर्थात उन्होंने कागज़ -कलम वाली शिछा ग्रहण नहीं की . उनके बारे में कहा जाता है -काशी के संत रामानन्द से दीछित है . इस आशय का प्रसंग है प्रात: जब स्वामी रामानन्द नदी में स्नान के लिए आये तो सीढ़ियों से उतरते हुए उनका पाँव कबीर पर पड़ा ,जो रामानन्द से ज्ञान प्राप्त करने के उत्सुक थे . —-इसीलिए कबीर को रामानन्द का ही शिष्य कहा जाता है . कबीर ने जीवन-मृत्य , आत्मा -परमात्मा के गूढ़ रहस्यों का आमजन की सहज भाषा में उदघाटन किया है .उनकी भाषा को ” सधुक्कड़ी” कहा जाता है .
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी ,
तेरे ही नाल सरोवर पानी ,
जल में ही उत्पत्ति जल में ही वास
काहे री नलिनी होत उदास
जल में कुम्भ ,कुम्भ में जल है
बाहर -भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना
ये तथ्य कह्यो ग्यानी
अर्थात कण -कण में व्याप्त परम सत्ता के हम प्रतिनिधि है , जीवन सदा परम अस्तित्व से नाल की तरह जुड़ा है ,इस शरीर रुपी कुम्भ में वही अस्तित्वगत है और कुम्भ टूटते ही परम अस्तित्व में समां जाता है, इसलिए दुःख और भय का कोई कारन नहीं . योगेश्वर कृष्ण का भी गीता में वचन है -परम अस्तित्व सदा अवध्य है , उसे शास्त्रों से काटा नहीं जा सकता ,जलाया नहीं जा सकता —–” कुम्भ रुपी शरीर नष्ट होने पर परम में समाहित हो जाता है ,पुनर्जन्म ,स्वर्ग -नरक जैसी परीकथाओं पर कबीर के वचन आँखे खोलने वाले है .शोषण -अत्याचार करने वालो को कबीर सावधान करते है –
माटी कहे कुम्हार से , तू क्यों रुंधे मोय
एकदिन ऐसा आएगा ,में रुधुन्गी तोय
बकरी पाती खात है ,हरदिन होत हलाल ,
जो जन बकरी खात है,उनको कौन हवाल
— जैसे वचनो में मात्र मानव ही नहीं ,समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव कबीर की रचनाओं में मिलता है .
–जीवन मरण ,आत्मा -परमात्मा के ज्वलंत प्रश्नों के इससे सहज सटीक उत्तर मिलना दुष्कर है
कबीर साहब की रचनाओं को विद्वानों ने तीन खण्डों में विभाजित किया है – साखी , सबद और रमैनी , साखी के अंतर्गत समाज और व्यक्ति सुधारक शिच्छाएं है तो ” सबद” में आधात्मिक प्रश्नों का समाधान और रमैनी में विलछन भक्ति दर्शन होता है . उनकी अद्भुत प्रतिभा ,मानव कल्याण में योगदान अभूतपूर्व है -सदा स्मरणीय है . साथ ही ईश्वर , सत्य की तथाकथित अवधारणा पर उनकी वैज्ञानिक दृस्टि उनको क्रान्तिकारी संत और कवि के रूप में स्थापित करती है .
हमन है इश्क मस्ताना ,हमन को होशियारी क्या , रहे आज़ाद या जग में ,हमन दुनिया से यारी क्या
-और- वही मोहम्मद वही महादेव ब्रम्हा आदम कहिये , को हिन्दू को तुर्क कहावे एक जिमी पे रहिये
जैसी रचनाएं सम्पूर्ण मानव एकता की कामना करती है और कबीर को महात्मा के रूप में प्रतिष्ठित भी करती है .
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