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मोटी सी बात : एफ़०दी०आइ

aaina
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स्वदेशी और आत्मनिर्भरता को धता बताते हुए यु०पी०ए सरकार ने देश के बाजारों में ५१ फीसदी विदेशी  पूँजी निवेश को हरी झंडी दे दी है , जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी  द्वारा देश के लिए नियत स्वदेशी की नीति के सर्वथा विपरीत है . यदि कहा जाए की देश के प्रमुख प्रतीक पुरुष और उसकी स्वदेशी की अवधारणा को कूड़ेदान में फेंक दिया गया है तो अतिश्यक्ति नहीं होगी . फिर एक कार्टूनिष्ट द्वारा रास्ट्रीय प्रतीकों से छेड़छाड़ के प्रकरण में देश द्रोह का मुकदमा चलाये जाने को तर्कसंगत कैसे ठहराया जा सकता है , जिस पर पूरे देश और मीडिया में हो हल्ला मच गया था , बड़े -बड़े राजनेताओं ने इसकी भर्त्सना की थी , लोकतंत्र की गरिमा ध्वस्त करने का आरोप लगाया गया था .
मोटी सी बात है की आधे से अधिक -५१ फीसदी विदेशी पूँजी आधारित बाजार में स्वदेशी पूंजीपति, किराना व्यापारी, किसान कैसे और कब तक प्रतिस्पर्धा में टिक सकेंगे . बाज़ार का नियम है की बड़े मछली छोटी छोटी मछलियों को खा जाती है . आज राजनेता देशी पूंजीपतियों से चंदा लेकर राजनीति कर रहे है और इनको लाभ पहुंचाने के लिए नीति -नियम बना रहे है , अब विदेशी पूंजीपतियों के दबाव से राजनीति चलेगी, नीति-नियम बनेगे और देश चलेगा . वर्तमान में पड़े-लिखे बेरोजगार छोटी मोटी दुकानों से अपना जीवन यापन कर रहे है ,अब वालमार्ट जैसे बड़े बड़े शो रूम में ५-७ हजार पर १२-१८ घंटे शीशों की चमचमाती इमारतों में गुलाम-बंधक श्रमिको की तरह काम करने को विवश होंगे . देश के छोटे छोटे पूंजीपति विदेशी कम्पनियों की फ्रेंचाइसी लेकर ही काम चलायंगे, किसान बड़ी बड़ी कम्पनियों की शर्तों और दामो पर अपना माल बेचने को मारे मारे फिरेंगे . फिर भी सरकार अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन देकर ऍफ़ ०दी ०आइ के फाइदे गिना रही है –

” उनकी ख्वाहिशें है की हम उनको मदद करें
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिये “

देश की दशा और दिशा देखते हुए भी ३०० से अधिक सांसद “कल हो की ना हो” की आशंका से सत्ता से चिपके हुए है और बाहर से समर्थन दे रहे छुटभय्ये राजनेतिक दल आगामी चुनावों का जोड़-गडित ,नफा-नुक्सान देखते हुए भ्रस्ताचार- घोटालो में आकंठ डूबी सरकार के साथ बने हुए है . इससे भी अधिक दुर्भाग्य यह है की दूसरा बड़ा राजनेतिक दल दूरगामी लाभ के लिए भगवा चोले से मुक्त होकर सर्वधर्म स्वीकार्य दल बनने से हिचक रहा है .
विगत दशक से लागू उदारवादी अर्थ व्यवस्था के बुरे परिणाम क्रमश आम नागरिक के जीवन पर पड़ने लगे है . सार्वजनिक उद्यमों को धीरे धीरे देसी-विदेशी पूंजीपति हड़पते जा रहे है . अधिकाधिक मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति से महंगाई आसमान चूमने लगी है और नागरिक की जेब तंग होती गयी है . जीवन यापन के लिए प्राथमिक आवश्यकताए जुटाने में नागरिक खून -पसीना बहा रहे है फिर भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं हो पा रहा है .

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से कही और उम्र भर के लिए

भ्रस्टाचार और लाखों-करोड़ों के घोटालों के आरोपों पर देश में मचे हंगामे से ध्यान हटाने के लिए सरकार सांसत में आ गयी है . साथ ही अमेरिकी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में सोची-समझी रणनीति के तहत प्रकाशित ” अंडर अचीवर ” जैसे आलोचनाओं के दबावों के आगे घुटने टेकते हुए सरकार द्वारा बिना सोचे -समझे ऍफ़-दी-आई- को मजूरी दी गयी है , इस नीति को भारत जैसे कृषि और श्रम प्रधान देश में कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता .

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