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इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है की दलितों के उत्थान के लिए प्रभावी एवं परिणामी उपाय किये जाने चाहिए ,क्योंकि आजादी के ६ दशक उपरान्त भी जातिगत भेद भाव कायम है एवं उच्च जाति के नागरिक निम्न जातियों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है . इनके प्रति हिकारत का भाव अभी बना हुआ है . नोकरियों में आराछान से निश्चित ही दलितों के कदम आगे बड़े है और सरकारी सेवा में दलितों की भागीदारी देखने को मिल रही है . यह भी सच है की शीर्ष पदों पर अपेछाकृत दलितों की भूमिका नगण्य ही है . विशेषकर उत्तर प्रदेश में जहां २-३ बार बसपा सत्ता पर काबिज हो चुकी है तब भी शीर्ष पदों तक दलितों की पहुँच क्यों नहीं हो सकी ,यह विचारणीय है . वह भी तब जब आराछान के साथ ही प्रोन्नति में भी आरछान की व्यवस्था लागू रही थी .
अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रोन्नति में आरछान की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है ,परिणामत उत्तर प्रदेश समेत कुछेक प्रदेशों में २५-३० वर्षों से एक ही पद पर रहे सामान्य वर्ग के अधिकारी/कर्मचारी की प्रोन्नति का मार्ग प्रशस्त हुआ है ,जबकि दलित वर्ग के कनिष्ठ सेवक प्रोन्नति में आरछान का लाभ लेकर उनसे बहुत वरिष्ठ पदों पर कार्य कर रहे है .
कितना दुखद है की विभिन्न सरकारी विभागों में यूनियनों में दो फाड़ हो गए है . एक-आराछित और दूसरी अनाराछित वर्ग ,जो एक-दुसरे के खिलाफ लामबंद है ,जिससे श्रमिक एकजुटता खंडित हुई है तथा सरकारों को मनमाने ढंग से अधिकारी/कर्मचारिओं का उत्पीडन करना आसान हो गया है .
इस तथ्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना आवश्यक है की प्रोन्नति में आरछान का प्राविधान किये जाने से सामान्य और दलित वर्ग के नागरिकों के मध्य आपसी सद्भाव-समभाव पर क्या और कितना प्रभाव पड़ रहा है .साथ ही प्रोन्नति में आरछान की व्यवस्था से अपेछाकृत अकुशल और अनुभवहीन सेवकों के कारण विभागीय कार्य गुणवत्ता पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ,और पड़ेगा ,जो प्रगति कर रहे देश के लिए कितना उचित है इसका आंकलन भी किया जाना प्रासंगिक है .
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