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“आरछन” की राजनीति !

aaina
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हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा पिछड़े मुस्लिम नागरिको हेतु आरछन की व्यवस्था की गयी है ,जिसे सरकार की नेकनीयती की बजाय राज्यों के चुनावों में फायदा लेने की कोशिश के तोर पर देखा जा रहा है . उच्चतम न्यायालय को ऐसी प्रव्रत्तियो का संविधान की मूल भावना के परिप्रेछ्य में स्वत: संज्ञान लेना चाहिए कि धर्म एवं जाति आधारित आरछन की व्यवस्था का क्या औचित्य है ? आजादी के बाद दशको बीत गए किन्तु जाति आधारित आरछन की व्यवस्था ने समाज में आपसी भेदभाव और विद्वेष बढाने का कार्य किया है इस तथ्य से इनकार नहीं किया जाना चाहिए . वही चुनाव में जाति आधारित छेत्रीय दलों द्वारा मतदाताओं के ध्रुवीकरण हेतु कुत्सित प्रयासों का खेल भी निरंतर चलता रहा है . आरछन जैसे अति संवेदनशील मुद्दों पर निर्णय लेने का सत्ता पर काबिज सरकारों को कितना अधिकार होना चाहिए, यह प्रश्न विचारणीय है .
सभी राजनैतिक दल ऐसे विषयों पर दबे-छिपे टीका-टिप्पड़ियाँ भले करते है ,किन्तु सामाजिक समभाव के ताने-बाने को तहस-नहस करने वाले धर्म-जाति गत आरछन व्यवस्था के विरुद्ध स्पष्टवादिता का साहस किसी में नहीं है .
देश के समस्त निर्धन नागरिकों को आर्थिक आधार पर आरछन क्यों नहीं ? इस विषय पर समाज,मीडिया ,राजनीति और न्यायिक मंचों पर खुली बहस ,विचार-विमर्श होना चाहिए ,जो की बदलते भारत के व्यापक हित में है . आरछन की वर्तमान व्यवस्था के तहत यदि कुछ नागरिक आरछित श्रेणी के है तो शेष नागरिक भारतवर्ष में अनारछित है .यह अवधारणा निश्चित ही हास्यास्पद प्रतीत होती है .सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है की कुटिल राजनैतिक उद्देश्य के तहत निर्धारित आरछन से “हम सब एक है ” के उद्घोष के स्वर छिन्न भिन्न होते है ,तो स्वाभाविक ही है . जिसमे कुछ कोटे के निरीह नागरिक है और वे शेष नागरिको से प्रथक है ,तिरस्कृत है . .

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