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केबिनेट ने पंचायत चुनावों में महिलाओं की ५० प्रतिशत भागीदारी के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी..फिफ्टी-फिफ्टी …आधे नर -आधे नारी . यह अलग बात है की संसद में महिला आरछन बिल वर्षों से पारित होने की प्रक्रिया में है . यद्यपि कुछ प्रदेशों के पंचायत चुनावों में यह व्यवस्था लागू है ,अब पूरे देश में प्रभावी हो गयी है . ग्राम पंचायतो मे लीलावती, कलावती के प्रभुत्व बड़ने अथवा हाथो में कमान आ जाने से निश्चित ही ग्रामीण विकास और समृद्धि के सुखद परिणाम आयेंगे , . नारी भूमिका सशक्त होने से समाज और देश की दशा बदलेगी ,कला-संस्कृति का सरंछन-संवर्धन होगा,शान्ति स्थापित होगी ऐसी आशा करनी चाहिए . किन्तु इसकी संभावना भी प्रबल है की गावों में दबंग पुरुष स्त्रियों के अधिकार का दमन और दुरूपयोग करें ,पंचायत चुनावों में स्त्रियों को मिले बराबरी के इस अधिकार की सार्थकता के लिए स्त्रियों को स्वयं शिछित और समर्थ होना होगा .तभी संवेदनशील ,सुसभ्य समाज की स्थापना हो सकेगी .
संसद में महिला आरछन बिल पारित कराये जाने के सम्बन्ध में कोई हलचल समाज और राजनीति में नहीं है . अखबार और टीवी को तो सामयिक ज्वलंत विषयों के अन्वेषण से ही फुर्सत नहीं है ..कल फिर नयी सुर्खियाँ ..क्या करे उनका काम ही कुछ ऐसा है …
इससे यही संदेह पुष्ट होता है की महिला आरछन बिल के पारित होने में व्यवधान डालने वाले मध्य युगीन मानसिकता के पोषक है ,जो देश में बड़ते महिला प्रतिनिधित्व से चिंतित है .,डरे हुए है .क्योंकि इससे बाहुबली -अपराधी और रिश्वतखोर नेताओं का वर्चस्व टूटेगा ..क्रमश कम होगा ..संसद और विधान सभाओं में हद दर्जे के अशोभनीय उत्पात और हुडदंग के दृश्य दिखाई नहीं देंगे ..
आखिर राजनितिक दल महिला आरछन विधेयक पर एकमत क्यों नहीं हो रहे है ? ऐसा लगता हैकि जब तक इस प्रश्न पर देश का गुस्सा उबलकर सड़कों पर बहेगा नहीं ,तब तक नेता सुनेंगे नहीं ….इन नेताओं की आदत सी हो गयी है की देश के ज्वलंत प्रश्नों पर देखो और इंतज़ार करो …जनता के गुस्से को इतना गरम करो की सडको पर हंगामा हो,अराजकता हो,तोड़फोड़ हो ..फिर गंभीर होंगे …सोचेंगे ..सक्रिय होंगे
साथ ही यदि यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा क़ि महिला संगठनो की उदासीनता के चलते ही महिला आरछन बिल मृतप्राय है …
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